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भगवान् की संभूति-शक्ति
गया है । मन, बुद्धि, हृदय और समस्त अंत:करण को प्रकृति के प्रभु परमेश्वर की सेवा में समर्पित करने के लिए योगशास्त्र का ग्रहण किया गया है । इसकी पूर्णता जगत् और जीवन के उन परम प्रभु को, जिनका यह प्रकृतिस्थ जीव सनातन अंश है, आदि कर्त्ता बनाकर साधित की गयी है । और, पूर्ण आत्मैक्य के प्रकाश में जीव का यह देख पाना कि सब पदार्थ भगवद्रूप हैं, इससे योगशास्त्र की संभावित परिच्छिन्नताओं और सीमाओं को पार किया गया है ।
फलत: उन परम सत्स्वरूप भगवान् के, एक साथ ही, परम सद्रूप में, विश्व के विश्वातीत मूल के रूप में, सब पदार्थों के निर्व्यष्टिक आत्मा के रूप में, विश्व के अचल धारक के रूप में, और सब प्राणियों, सब व्यष्टियों, सब पदार्थों, शक्तियों और गुणों के अंत:स्थित ईश्वर के रूप में, उस अंतर्यामी के रूप में जो आत्मा तथा कार्यकर्त्री प्रकृति हैं और सब भूतों के अंतर्भव और बहिर्भव हैं,--एक साथ ही इन सब रूपों मे--पूर्ण दर्शन होते हैं । उस एक के इस संपूर्ण दर्शन और ज्ञान में ज्ञानयोग की पूर्णतया सिद्धि हो गयी । सब कर्मों का उनके भोक्ता स्वामी के प्रति समर्पण होने से कर्मयोग की पराकाष्ठा हो गयी--क्योंकि अब स्वभावनियुक्त मनुष्य भगवदिच्छा का केवल एक यंत्न रह जाता है । प्रेम और भक्ति का योग पूर्ण विस्तृत रूप में बता दिया गया । ज्ञान, कर्म और प्रेम की आत्यंतिक पूर्णता व्यक्ति को उस पद पर पहुँचाती है जहाँ जीव और जीवेश्वर अपनी उच्चात्युच्च अतिशयता में परम अभेद को प्राप्त होते हैं । उस अभेद में स्वरूप ज्ञान का प्रकाश हृदय को तथा बुद्धि को भी यथावत् प्रत्यक्ष या अपरोक्ष होता है । उस अभेद में निमित्त मात्र होकर किया जानेवाला कर्मरूप कठिन आत्मोत्सर्ग जीते-जागते एकत्व की आयासरहित स्वच्छंद और आनंदमयी अभिव्यक्ति होता है । इस प्रकार आत्मिक मोक्ष का संपूर्ण साधन बता दिया गया; दिव्य कर्म की पूरी नींव डाल दी गयी ।
भगवत्स्वरूप श्रीगुरु से प्राप्त इस संपूर्ण ज्ञान को अर्जुन ग्रहण करता है । उसका मन सब संशयों से ऊपर उठ चुका है; उसका हृदय जगत् के बाह्य रूप और उसके मोहक-भ्रामक दृश्य से हटकर अपने परम अर्थ और मूल स्वरूप तथा उसकी अंत:स्थ वास्तविकताओं को प्राप्त हो चुका है, शोक-संताप से छूटकर भगवदीय दर्शन के अनिर्वचनीय आनंद के सम्पर्क में आ चुका है । इस ज्ञान को ग्रहण करते हुए वह जिन शब्दों का प्रयोग करता है उनसे फिर एक बार विशेष बल और आग्रह के साथ यह बात सामने आती है कि यह ज्ञान वह ज्ञान है जो संपूर्ण है, सब कुछ इसमें आ गया है, कोई बात बाकी नहीं रही । अर्जुन सर्वप्रथम उन्हें, जो उसे यह ज्ञान दान कर रहे हैं अवतार मानता है अर्थात् उन्हें मनुष्य-तन में ३७० परब्रह्म परमेश्वर-रूप से ग्रहण करता है, उन्हें वह 'परं ब्रह्य', 'परं धाम' मानता है जिसके अंदर जीव, इस बाह्य जगत् और इस अंशरूप भूतभाव से निकलकर अपने मूल स्वरूप को प्राप्त होने पर, रह सकता है । अर्जुन उन्हें वह 'परमं पवित्रम्' जानता है जो मुक्त स्थिति की परमा पवित्रता है--वह परम पावन स्थिति जीव को तब प्राप्त होती है जब वह अपने अहंकार को मिटाकर अपने आत्मस्वरूप की स्थिर अचल अक्षर निर्व्यष्टिक ब्राह्मी स्थिति में पहुँचता है । अर्जुन फिर उन्हें 'पुरुषं शाश्वतं दिव्यम्' एकमेव सत् सनातन दिव्य पुरुष जान कर ग्रहण करता है । वह उन्हें 'आदि देव' कहकर उनकी स्तुति करता है और सर्वव्यापक सर्वांतर्यामी अविनाशी परमात्मा 'आदिदेवमजं विभुम्' रूप से उनकी पूजा करता है । अतएव, वह उन्हें केवल वह 'अद्भुत' ही नहीं मानता जो किसी भी प्रकार के वर्णन से परे है, क्योंकि कोई भी वस्तु उन्हें व्यक्त करने के लिये पर्याप्त नहीं है,---''हे भगवन्, आपकी अभिव्यक्ति को न तो देवता जानते हैं न ही दानव" , 'न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः'-बल्कि वह उन्हें सर्वभूतों का स्वामी, उनकी समस्त संभूति का एकमात्र दिव्य निमित्त कारण, देवों का देव जिससे सब देवता उद्भूत हुए हैं, तथा जगत् का पति भी मानता है जो ऊपर से अपनी परमोच्च तथा विश्वव्यापी प्रकृति की शक्ति के द्वारा उसे अभिव्यक्त तथा परिचालित करता है, 'भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पतें' । अंत में वह उन्हें हमारे अंदर तथा चारों ओर अवस्थित उन वासुदेव के रूप में ग्रहण करता है जो यहाँ सभी कुछ हैं अपनी संभूति की विश्वव्यापी, घट-घटवासी, सर्व-निर्मायक विभु-शक्तियों के बल पर, 'विभूतयः' ''संभूति की सर्वोच्च शक्तियाँ जिनके द्वारा आप इन लोकों को व्याप्त किये हुए हैं", 'याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि' ।१
उसने अपने हृदय की भक्ति,इच्छा-शक्ति-सकल्पके समर्पण तथा बुद्धि की समझ के साथ इस सत्य को ग्रहण कर लिया है । वह इस ज्ञान में रहते हुए तथा इस आत्म-समर्पण के साथ दिव्य यंत्न के रूप में कार्य करने के लिए तैयार हो चुका है । पर अब एक गभीरतर अविच्छिन्न आध्यात्मिक उपलब्धि की इच्छा उसके हृदय तथा उसकी संकल्पशक्ति में जाग उठी है । यह एक ऐसा सत्य है जो केवल परम आत्मा को ही अपने आत्म-ज्ञान में प्रत्यक्ष होता है,--क्योंकि अर्जुन कहता है, ''हे पुरुषोत्तम, केवल आप ही अपने-आपको अपने-आपसे जानते है 'आत्मा-नमात्मना वेत्थ' । यह एक ऐसा ज्ञान है जो आध्यात्मिक तादात्म्य द्वारा प्राप्त होता है और प्राकृत मनुष्य का हृदय, संकल्प-शक्ति तथा बुद्धि बिना सहायता के, ____________ १. गीता १०, १२-१५ ३७१ अपनी ही चेष्टा के द्वारा इसतक नहीं पहुँच सकते । ये तो केवल उन अपूर्ण मानसिक प्रतिबिंबों को ही प्राप्त कर सकते हैं जो इसे प्रकाशित करने से कहीं अधिक छिपाते तथा विकृत करते हैं । यह एक गुप्त ज्ञान है जो मनुष्य को उन ऋषियों से सुनना होगा जिन्होंने इस सत्य का साक्षात्कार किया है, इसकी वाणी को श्रवण किया है और अंतरात्मा तथा आत्मा में इसके साथ एकात्मता प्राप्त की है । ''सभी ऋषि और नारद, असित, देवल, व्यास आदि देवर्षि आपके विषय में यही कहते हैं ।''१ अथवा मनुष्य को इसे अपने अंदर से दिव्य दर्शन एवं अंत:स्कुरणा के द्वारा उन अंतर्यामी देव से प्राप्त करना होगा जो हमारे अंदर ज्ञान के उज्ज्वल दीप को ऊपर उठाते हैं । "और आप स्वयं भी मुझे यही बताते हैं'' 'स्वयञ्चैव ब्रवीषि मे' । जब एक बार यह सत्य प्रकट हो जाय तब इसे मन की स्वीकृति, संकल्प-शक्ति की सहमति तथा हृदय के आनंद और पूर्ण समर्पण युक्त मानसिक श्रद्धा के इन तीनों तत्वों के द्वारा स्वीकार करना होता है । अर्जुन ने इसे इसी प्रकार अंगीकार किया है; ''इस सब को, जो आपने कहा है, मेरा मन सत्य मानता है ।''२ परंतु फिर भी हमारी सत्ता की वास्तविक आत्मा में तथा उसके अत्यंत अंतरंग चैत्य केन्द्र से बाहर उस गभीरतर अधिकृति की आवश्यकता,.उस नित्य अवर्णनीय आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए हमारी अंतरात्मा की माँग तो बनी ही रहेगी, मानसिक उपलब्धि जिसका एक प्रारंभ या छायामात्रा है और जिसके बिना सनातन के साथ पूर्ण मिलन नहीं प्राप्त हो सकता ।
सुतरां, उस उपलब्धि तक पहुँचने का मार्ग अर्जुन को अब बता दिया गया है । और, जहाँतक महान् स्वतःप्रत्यक्ष दिव्य तत्वों का संबंध है, वे व्यक्ति के मन को चक्कर में नहीं डालते । वह परम देवाधिदेव-संबंधी विचार, अक्षर आत्मा के अनुभव, अंतर्यामी ईश्वर के प्रत्यक्ष बोध तथा चेतन विश्व-पुरुष के संस्पर्श की ओर खुल सकता है । देवाधिदेव-विषयक विचार से एक बार मन के आलोकित होते ही, मनुष्य शीघ्रता के साथ मार्ग का अनुसरण कर सकता है और सामान्य मानसिक बोधों को अतिक्रांत करने के लिए चाहे कोई भी प्रारंभिक कठिन प्रयत्न क्यों न करना पड़े, फिर भी अंत में वह इन मूल सत्यों का, जो हमारी सत्ता तथा समस्त सत्ता के पीछे अवस्थित हैं, स्वानुभव प्राप्त कर सकता है, 'आत्मना आत्मानम्' । वह इसे इस शीघ्रता के साथ प्राप्त कर सकता है क्योंकि ये, एक बार विचार में आ जाने पर, प्रत्यक्ष ही दिव्य सत्य होते हैं; हमारे मानसिक संस्कारों में ऐसी कोई चीज नहीं जो ईश्वर को इन उच्च रूपों में स्वीकार करने से ____________ १. १०-१३ २. १०-१४ ३७२ हमें रोकती हो । पर कठिनाई तो जीवन के प्रतीयमान सत्यों में उसे देखने, प्रकृति के इस तथ्य में तथा जगद्-अभिव्यक्ति के इस प्रच्छन्नकारी दृश्य प्रपंच में उसे ढूँढ़ निकालने में पैदा होती है; क्योंकि यहाँ सब कुछ इस एकीकारक विचार की उच्चता के विपरीत है । भगवान् को मनुष्य, जीव-जन्तु तथा जड़ पदार्थ के रूप में, उच्च और नीच, सौम्य और रौद्र तथा शुभ और अशुभ में देखने के लिए हम कैसे सहमत हो सकते हैं ? जगत् के पदार्थों में व्याप्त ईश्वर से संबंध रखने-वाले किसी विचार को स्वीकार करके यदि हम ज्ञान की आदर्श ज्योति, शक्ति की महानता, सौंदर्य की मोहक छटा, प्रेम की उदारता तथा आत्मा की विपुल विशालता में उसे देख भी लें, तो भी इनके उन विरोधी गुणों के द्वारा, जो सचमुच ही इन उच्च वस्तुओं के साथ चिपके रहते हैं तथा इन्हें आच्छन्न और धूमिल कर देते हैं, एकता के भंग होने की बात से हम कैसे बचेंगे ? और, यदि मानव-मन तथा प्रकृति की सीमाओं के होते हुए भी हम देव-मानव में ईश्वर को देख सकें, तो भी हम उन लोगों में उन्हें कैसे देखेंगे जो उनका विरोध करते हैं तथा कर्म और प्रकृति में उन सब चीजों को ही प्रकट करते हैं जिन्हें हम अदिव्य समझते हैं ? यदि नारायण ज्ञानी और संत में बिना कठिनाई के दीख जाते हैं तो पापी, अपराधी, वेश्या तथा चांडाल में वे हमें सुगमता से कैसे दिखाई देंगे ? सर्वत्र परम पवित्रता तथा एकता की खोज करता हुआ ज्ञानी विश्व-सत्ता के सभी विभेदों के प्रति ''यह नहीं, यह नहीं'', 'नेति-नेति', की कठोर पुकार उठाता है । यद्यपि हम इस संसार में बहुत-सी वस्तुओं को इच्छा या अनिच्छापूर्वक स्वीकृति देते हैं तथा जगत् में भगवान् को स्वीकार करते हैं तथापि क्या अधिकतर वस्तुओं के सामने मन को ''यह नहीं, यह नहीं'' की उस पुकार में ही नहीं डटे रहना होगा ? यहाँ निरंतर ही बुद्धि की स्वीकृति, संकल्पशक्ति की सहमति और हृदय की श्रद्धा दृग्विषय और बाह्य रूप पर ही सदा लंगर डाले हुए मानव-मन के लिए कठिन हो जाती हैं । एकत्व की प्राप्ति के कठिन प्रयास के लिए कम-से-कम कुछ प्रबल संकेतों, कुछ शृंखलाओं और सेतुओं, कुछ अवलंबों को आवश्यकता पड़ती ही है ।
यद्यपि अर्जुन 'सर्व' के रूप में वासुदेव के प्राकट्य को स्वीकार करता है और यद्यपि उसका हृदय इसके आनंद से परिपूर्ण है,--क्योंकि वह पहले से ही अनुभव कर रहा है कि यह उसे विरोधमय जगत् की चकरानेवाली समस्याओं के बीच किसी सूत्र किंवा मार्ग-दर्शक सत्य के लिए पुकार करनेवाले उसके मन की व्याकुलता और स्खलनकारी विभेदों से मुक्त कर रहा है, और यह उसके कानों के लिए अमृत-रस, 'अमृतम्' है,--फिर भी वह ऐसे अवलंबों और संकेतों को प्राप्त करने की आवश्यकता अनुभव करता है । वह अनुभव करता है कि पूर्ण तथा दृढ़ उपलब्धि ३७३ की कठिनाई को दूर करने के लिए ये अनिवार्य हैं; नहीं तो, भला और किस प्रकार से इस ज्ञान को हृदय तथा जीवन की वस्तु बनाया जा सकता है ? वह मार्गदर्शक संकेत चाहता है, यहाँतक कि वह श्रीकृष्ण से अपनी संभूति की सर्वोच्च शक्तियों को पूर्ण रूप से तथा विस्तार के साथ गिनाने के लिये प्रार्थना करता है और चाहता है कि उसकी दृष्टि से कुछ भी छूटने न पाये, उसे चकरानेवाली कोई भी चीज शेष न रहे । वह कहता है, ''संभूति की अपनी सर्वोच्च शक्ति में अपनी सब दिव्य आत्मविभूतियाँ, 'दिव्या आत्मविभूतयः', आप मुझे बिना अपवाद के, 'अशेषेण', नि:शेष रूप सें-बताइये, अपनी वे विभूतियाँ जिनके द्वारा आप इन लोकों और प्रजाओं को व्याप्त किये हुए हैं । हे योगिन्, हर क्षण और हर जगह आपका चिंतन करते हुए मैं आपको कैसे जानूँ और किन-किन प्रमुख संभूतियो में मैं आपका चिंतन करूँ ?''१ वह पुकारकर कहता है कि इस योग के विषय में जिसके द्वारा आप सबके साथ एक हैं और सबके अंदर अवस्थित 'एक' हैं और सब आपकी सत्ता के भूतभाव हैं, सब आपकी प्रकृति की व्यापक या प्रमुख या प्रच्छन्न शक्तियाँ हैं, आप मुझे पूरे व्योरे और विस्तार के साथ बताइये और सदा अधिकाधिक बताइये; यह मेरे लिए अमृत-रस है, और जितना ही अधिक मैं इसके बारे में सुनता हूँ, मेरी तृप्ति नहीं होती । यहाँ हम गीता में एक ऐसी चीज का संकेत पाते हैं जिसे स्वयं गीता भी स्पष्ट रूप में प्रकट नहीं करती, परंतु जो उपनिषदों में बार-बार आती है और जिसे आगे चलकर वैष्णव तथा शाक्त धर्मों ने, दिव्य दर्शन की महत्तर तीव्रता में विकसित किया था, और वह है जगत् में रहनेवाले भगवान् में मनुष्य को आनंद प्राप्त होने की संभावना, सार्वभौम आनंद, जगज्ज्ननी की क्रीड़ा एवं ईश्वर की लीला का माधुर्य और सौंदर्य ।२
भगवान गुरु शिष्य की प्रार्थना को स्वीकार कर लेते हैं, किन्तु शुरू में ही स्मरण करा देते हैं कि पूर्ण उत्तर देना संभव नहीं । क्योंकि ईश्वर अनंत हैं और उनकी अभिव्यक्ति भी अनंत है । उनकी अभिव्यक्ति के रूप भी असंख्य हैं । प्रत्येक रूप अपने अंदर छिपी हुई किसी दिव्य शक्ति, 'विभूति' का प्रतीक है और देख सकनेवाली आँख के लिए प्रत्येक 'सांत' अपने-अपने ढंग से अनंत को प्रकट कर रहा है । वे कहते हैं, 'हाँ, मैं तुम्हें अपनी दिव्य विभूतियों के बारे में बतलाऊँगा; पर केवल अपनी कुछ मुख्य-मुख्य उत्कृष्टताओं के विषय में तथा निर्देश के रूप में और उन वस्तुओं के उदाहरण के द्वारा जिनमें तुम देवाधिदेव की शक्ति को अनायास ही देख सकते हो, प्राधान्यतः, उद्देशतः ।' क्योंकि, जगत् में ईश्वर के आत्म- ____________ १. १०, १६-१८ २. १०,१६-१८ ३७४ विस्तार के असंख्य व्योरों का कोई अंत ही नहीं है, 'नास्ति अन्तो विस्तरस्य में' । इस बात को स्मरण कराकर ही गुरु यह प्रकरण आरंभ करते हैं और इसपर और भी अधिक तथा असंदिग्ध बल देने के लिए अंत में इसे पुनः दुहराया गया है । और फिर शेष सारे अध्याय में१ हम जगत् के पदार्थों तथा प्राणियों में विद्यमान दिव्य शक्ति के इन मुख्य निर्देशों, इन उत्कृष्ट संकेतों का संक्षिप्त वर्णन पाते हैं । ऐसा मालूम होता है मानो ये बिना किसी क्रम के ही अस्त-व्यस्त रूप में दे दिये गये हों, परंतु फिर भी इनके परिगणन में एक विशेष नियम-क्रम है जो, यदि एक बार हमारे सामने प्रकट हो जाय तो, हमें एक सहायक पथ-प्रदर्शन के द्वारा इस विचार तथा इसके परिणामों के आंतरिक आशय की ओर ले जा सकता है । इस अध्याय को 'विभूति-योग' का नाम दिया गया है, जो एक परमावश्यक योग है । कारण, जहाँ हमें विश्वव्यापी दिव्य 'संभूति' के साथ उसके संपूर्ण विस्तार में, उसके शुभ और अशुभ पूर्णता और अपूर्णता, प्रकाश और अंधकार में समभाव से अपने-आपको एकाकार करना होगा, वहाँ हमें साथ-ही-साथ यह भी अनुभव करना होगा कि इसके अंदर एक आरोहणशील विकासात्मक शक्ति है, वस्तुओं में होनेवाले इसके प्राकटय का एक बढ़ता हुआ उत्कर्ष है, कोई क्रम-परंपरात्मक रहस्यमय वस्तु है जो हमें प्रारंभिक आवरणकारी प्रतीतियों से, उत्तरोत्तर उच्चतर रूपों में से गुजारती हुई, विश्वव्यापी देवाधिदेव की व्यापक आदर्श प्रकृति की ओर ऊपर उठा ले जाती है ।
यह संक्षिप्त परिगणन उस मूल सिद्धांत के प्रतिपादन से आरंभ होता है जो विश्व में होनेवाली इस अभिव्यक्ति की समस्त शक्ति के मूल में निहित है । वह यह है कि प्रत्येक जीव और पदार्थ में ईश्वर गुप्त रूप से निवास करते हैं और वे उसके अंदर खोजे जासकते हैं, प्रत्येक पदार्थ एवं प्राणी के मन और हृदय में वे ऐसे बसे हुए हैं जैसे एक गुहा-गृह में, उसकी आंतर और बाह्य व्यक्त सत्ता के अंतस्तल में वे अत:स्थ आत्मा हैं, जो कुछ भी है, हो चुका है या होगा उस सब के वे आदि, मध्य और अंत हैं । यह अंतर्यामी दिव्य आत्मा ही, जो जिस मन और हृदय में बसी है उससे छिपी हुई है, यह प्रकाशमान अंतर्वासी ही जो उस प्रकृतिगत अंतरात्मा की दृष्टि से ओझल है जिसे अपने प्रतिनिधि के रूप में प्रकृति के अंदर प्रकट किया है, हमारे कालगत व्यक्तित्व तथा हमारी देशगत संवेदनात्मक सत्ता के क्षरभावों को सब समय विकसित कर रहा है,--देश और काल हमारे अंतःस्थ ईश्वर की चिंतनगत गति और विस्तार हैं । सब कुछ यह अपने-आपको देखनेवाली आत्मा तथा अपने-आपको प्रकट करनेवाली अध्यात्मसत्ता ही है । सदा ही सब जीवों __________ १. १०, १९-४२ ३७५ के अंदर से, सब चेतन और अचेतन भूतों के अंदर से ये सर्व-चेतन अपनी व्यक्त आत्मा को गुण और शक्ति में विकसित करते हैं, पदार्थों के रूपों में, हमारी आंतर सत्ता के करणों में, ज्ञान, शब्द और चिंतन में, मन की वृत्तियों तथा कर्त्ता के रागावेश और कार्य-कलाप में, काल के मान में, वैश्व शक्तियों एवं देवताओं में तथा प्रकृति की शक्तियों में, उद्धिज-जीवन में, पशु-जीवन में, मानव और अतिमानव जीवों में ये उसे विकसित करते हैं |
यदि हम गुण और मात्रा के विभेदों से या मूल्यों के भेद तथा प्रकृति के विरोधों से अंध न होनेवाली इस अंतर्दर्शन की आँख से वस्तुओं पर दृष्टिपात करें तो हम देखेंगे कि सभी वस्तुएँ वास्तव में इस अभिव्यक्ति की शक्तियाँ हैं, इस विश्वव्यापी आत्मा तथा अध्यात्म-सत्ता की विभूतियाँ हैं, इस महान् योगी का योग, इस अद्भुत आत्मस्रष्टा की आत्म-सृष्टि हैं और इसके सिवा वे और कुछ हो ही नहीं सकतीं । वे इस विश्व में अपने अगणित भूतभावों के अज तथा सर्वव्यापक स्वामी 'अजो विभु:' हैं, सभी पदार्थ उनकी आत्म-प्रकृति में उनकी शक्तियाँ तथा उनके संसिद्ध रूप, 'विभूतियाँ' हैं । वे जो कुछ हैं उस सबका वे उद्गम हैं उनका आदि है,; उनकी नित्य-परिवर्तनशील अवस्था में वे उनका आधार, उनका मध्य हैं; वे ही उनका अंत भी हैं, प्रत्येक सृष्ट वस्तु की समाप्ति या विलय की अवस्था में वे ही उसका पर्यवसान या विघटन हैं । वे उन्हें अपनी चेतना में से बाहर निकालते हैं और उनमें गुप्त रूप से अवस्थित रहते हैं और वे ही उन्हें अपनी चेतना में वापिस खींच लेते हैं जो फिर उनके अंदर कुछ समय या सदा के लिये अंतर्लीन रहते हैं । जो कुछ भी हमें दिखायी देता है वह एकमेव की विभूति मात्र है : जो कुछ हमारे इन्द्रिय-बोध और हमारी दृष्टि से अगोचर होजाता है वह एकमेव की उस विभूति के परिणामस्वरूप ही अगोचर होता है । सभी श्रेणियाँ, जातियाँ, उपजातियाँ तथा व्यष्टि ऐसी ही विभूतियाँ हैं । परन्तु अपनी संभूति में विद्यमान शक्ति के द्वारा ही दृष्टिगोचर होने के कारण वे हमें उस चीज में विशेष रूप से दिखायी देते हैं जो उत्कृष्ट मूल्य-महत्व रखती है या जो प्रबल तथा श्रेष्ठ शक्ति के साथ कार्य करती प्रतीत होती है । अतएव, प्रत्येक प्रकार की सत्ता में हम उन्हें उन्हींके अंदर अधिक-से-अधिक देख सकते हैं जिनमें उस प्रकार की प्रकृति की शक्ति सर्वोच्च, प्रमुख तथा अत्यंत प्रभावशाली रूप में आत्म-प्राकटच करनेवाली निज अभिव्यक्ति को प्राप्त करती है । वे एक विशेष अर्थ में विभूतियाँ होती हैं । परन्तु, उच्चतम शक्ति और अभिव्यक्ति भी अनंत का केवल एक अत्यंत आंशिक प्रकाश होती है; यहाँतक कि यह संपूर्ण विश्व भी उनकी महिमा के केवल एक ही अंश से अनुप्राणित हो रहा है, उनकी ज्योति की एक ही रश्मि से प्रकाशमान ३७६ है, उनके आनंद और सौंदर्य की एक हलकी-सी झलक से ही महिमान्वित हो रहा है । यही, संक्षेप में, इस परिगणन का सार तथा इससे निकलनेवाला परिणाम है और यही इसके अर्थ का मर्म है ।
ईश्वर अक्षय, अनादि अनंत काल हैं; यह उनकी संभूति की अत्यंत प्रत्यक्ष शक्ति है और संपूर्ण वैश्व गति का मूलतत्त्व है । 'अहमेव अक्षय: काल:' । काल और संभूति की उस गति में ईश्वर स्वविषयक हमारे विचार या अनुभव के प्रति, अपने कार्यों की साक्षी के द्वारा एक ऐसी दिव्य शक्ति प्रतीत होते हैं जो सब वस्तुओं को व्यवस्थित करती तथा गति के अंदर अपने-अपने स्थान पर स्थापित करती है । वही अपने देशात्मक रूप में सब ओर हमारे सामने उपस्थित होते हैं, लाखों शरीरों-वाले, असंख्य मनोंवाले, प्रत्येक सत्ता में प्रकट; सब तरफ हम उन्हीं के चेहरों को देखते हैं, 'धाताहं विश्वतोमुख: ' । क्योंकि, उनके आत्मा, विचार एवं शक्ति का, सर्जन की दिव्य प्रतिभा, रचना की अद्भुत कला और संबंधों, संभावनाओं तथा अनिवार्य परिणामों की निर्भ्रांत व्यवस्था का रहस्य एक साथ इन सब लाखों प्राणियों और पदार्थों में, 'सर्वभूतेर्षु', कार्य करता है । इस संसार में वे हमें संहार करनेवाली विश्वव्यापी आत्मा भी दिखायी देते हैं, जो अपनी रचनाओं को अंत में नष्ट करने के लिए ही बनाते प्रतीत होते हैं :-''मैं सर्वसंहारक मृत्यु हूँ'', 'अहं मृत्यु: न् सर्वहरः' । फिर भी उनकी संभूति को शक्ति अपना व्यापार बंद नहीं करती, क्योंकि पुनर्जन्म एवं नवसर्जन की शक्ति सदा ही मृत्यु और संहार की शक्ति के साथ कदम मिलाकर चलती है,--''और, जो कुछ उत्पन्न होगा उस सबका उद्धव भी मैं ही हूँ ।''१ वस्तुओं में विद्यमान दिव्य आत्मा वर्तमान का धारण करने-वाला, भूत का प्रतिहरण करनेवाला तथा भविष्यत् का सर्जन करनेवाला आत्मा है ।
फिर, इन सब जीवित प्राणियों, वैश्व देवताओं, अतिमानव, मानव और अवमानव प्राणियों में, तथा इन सब गुणों, शक्तियों और पदार्थों में जो प्रत्येक श्रेणी के गुण में प्रधान, उच्च और सबसे महान् है वह देवाधिदेव की एक विशेष विभूति है | भगवान् कहते हैं कि 'मैं आदित्यों में विष्णु, रुद्रों में शिव, देवताओं में इन्द्र और असुरों में प्रह्लाद हूँ, संसार के महान् पुरोहितों का प्रमुख वृहस्पति, सेनानियों का सेनानी युद्ध-देवता स्कंद हूँ, मरुतों में मरीचि, यक्षों और राक्षसों में कुबेर, नागों में अनंतनाग, वसुओं में अग्नि, गंधर्दों में चित्ररथ, संतानोत्पादकों में प्रेम-देवता कंदर्प, समुद्र अधिवासियों में वरुण, पितरों में अर्यमा, देवर्षियों में नारद, नियमविधान की रक्षा करनेवालों में नियम के अधिपति यम, आँधी-तूफान की शक्तियों में पवन-देवता हूँ । इस श्रृंखला के दूसरे छोर पर मैं प्रभाओं और ____________ १. १०-३४ ३७७ ज्योतियों में जाज्वल्यमान सूर्य, रात्रि के नक्षत्रों में चन्द्रमा, सरों में सागर, संसार के शिखरों में मेरु, पर्वत-श्रुंखलाओं में हिमालय, नदियों में गंगा, आयुधों में दिव्य आयुध 'वज्र' हूँ । सब पेड़-पौधों में मैं अश्वत्थ हूँ, अश्वों में इन्द्र का अश्व उच्चै:श्रवा, हाथियों में ऐरावत, पक्षियों में गरुड़, सर्पों में सर्प-देवता वासुकि, धेनुओं में कामधेनु, मत्स्यों में मगरमच्छ, वन्य पशुओं में सिंह हूँ, मासों में मैं प्रथम मास मार्गशीर्ष हूँ; ऋतुओं में सर्वसुन्दर वसन्त ऋतु हूँ ।'
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि 'जीवों में मैं चेतना हूँ जिसके द्वारा वे अपने-आपको तथा अपने परिपार्श्व को जानते हैं । इन्द्रियों में मैं मन हूँ, मन के द्वारा ही वे पदार्थों के प्रभावों को ग्रहण करती हैं तथा उनपर प्रतिक्रिया करती हैं । मैं उनके मन, चरित्र, शरीर और कर्म के गुण हूँ, मैं कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति, क्षमा हूँ, तेजस्वियो का तेज और बलवानोंका बल हूँ । मैं कृतसंकल्प हूं, अध्यवसाय और जय हूँ, सज्जनों का सत्त्वगुण हूँ, छलियों का द्यूत हूँ; जो शासन, दमन और पराभव करते हैं उन सबकी प्रभुता और दंड-शक्ति मैं हूँ और जो सफलता तथा विजय लाभ करते हैं उन सबकी नीति भी मैं हूँ; मैं गुह्यों का मौन हूँ, ज्ञानियों का ज्ञान तथा विवादकर्त्ताओं का तर्क हूँ । मैं अक्षरों में अकार, समासों में द्वंद्व, शब्दों में पवित्र पद ओंकार, छंदों में गायत्नी, वेदों में सामवेद, मंत्रों में वृहत् साम हूँ । जो गणना और आकलन करते हैं उनके लिये मैं समस्त गणना का अग्रणी काल हूँ, नाना दर्शनों, कलाओं और विद्याओं में मैं अध्यात्मविद्या हूँ । मैं मनुष्य की समस्त शक्ति-सामर्थ्य हूँ और विश्व तथा उसके प्राणियों की समस्त शक्तियाँ हूँ ।'
'जिन लोगों में मेरी शक्तियाँ मानव-उपलब्धि के उच्चतम शिखरों को पहुँच जाती हैं वे सदा स्वयं मेरा ही रूप, मेरी विशेष विभूतियाँ होते हैं । मैं मनुष्यों में राजा, नेता, शक्तिशाली पुरुष किंवा वीर हूँ । मैं योद्धाओं में राम, वृष्णियो में कृष्ण, पांडवों में अर्जुन हूँ । ज्ञानी ऋषि मेरी ही विभूति होता है; महर्षियों में मैं भृगु हूं । जो महान् ऋषि या अंत:प्रेरित कवि सत्य को देखता है तथा विचार की ज्योति और शब्द की ध्वनि के द्वारा उसे व्यक्त करता है वह मर्त्य-देह में प्रकाशमान स्वयं मैं ही होता हूँ; द्रष्टा कवियों में मैं उशना हूँ । महान् मुनि, विचारक या दार्शनिक मनुष्यों में मेरी ही शक्ति, मेरी ही विशाल प्रज्ञा होती है; मैं मुनियों में व्यास हूँ । अभिव्यक्ति में मात्रा का भेद चाहे कितना ही क्यों न हो, सब भूत अपने निजी ढंग से और अपनी निजी प्रकृति में ईश्वर की ही शक्तियाँ हैं; इस संसार में कोई भी चर-अचर या जड़-चेतन मुझसे रहित नहीं हो सकता । मैं सभी भूतों का दिव्य बीज हूँ, और वे उस बीज की शाखाएँ और पुष्प हैं; जो कुछ आत्मा-रूपी बीज में है उसीको वे प्रकृति में विकसित कर सकते हैं । मेरी ३७८ दिव्य विभूतियों की कोई गणना या सीमा नहीं है; जो कुछ मैंने कहा है वह एक संक्षिप्त निरूपण से अधिक कुछ नहीं और मैंने केवल कुछ प्रमुख संकेतों पर ही प्रकाश डाला है और अनंत सत्यताओं की ओर एक दृढ़ मार्ग खोल दिया है । संसार में जो कोई भी सुन्दर और विभूतिशाली प्राणी तुम देखते हो, मनुष्यों में तथा मनुष्य से ऊपर और उससे नीचे जो कोई भी शक्तिशाली और ऊर्जस्वी सत्ता है उसे तुम मेरा ही तेज, ज्योति और शक्ति समझो, मेरी ही सत्ता के तेजस्वी अंश और प्रखर शक्ति से उत्पन्न जानो । परंतु इस ज्ञान के लिये अनेक ब्योरों की आवश्यकता ही क्या है ? इसे यों समझो कि मैं यहाँ इस संसार में हूँ और सब जगह हूँ, मैं सब में हूँ, और सब कुछ हूँ; मेरे सिवा और कुछ भी नहीं है, मेरे बिना किसी भी चीज का अस्तित्व नहीं है । इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड को मैं अपनी असीम शक्ति की एक ही कला तथा अपने अगाध आत्मा के एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंश से ही धारण करता हूँ; ये सब भुवन उस नित्य अपरिमेय 'मैं हूँ', 'अहमस्मि' के स्फुलिंग, संकेत और रश्मियाँ मात्र हैं।' ३७९ |